Shabdo ke Beej (शब्दों के बीज )

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डॉक्टर अनीता कपूर जी द्वारा रचित कविताओं का संकलन

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स्त्री-विमर्श के नव मूल्य स्थापित करती कविताएँ   अनिता कपूर जी की कृति *शब्दों के बीज* हाथ में है शीर्षक पर ही देर तक नज़र ठहरी रही। मन में एक मंथन इस शीर्षक को लेकर देर तक चला। कई प्रकार के विचार आ- आकर मन की चौखट पर दस्तक देने लगे। आख़िर क्या है शब्द बीज? मन इस शीर्षक की  परिभाषाएँ गढ़ने, तलाशने लगा। जिस प्रकार वनस्पति विज्ञान में बीज एक भ्रूण है जो सुरक्षात्मक बाह्य आवरण में लिपटा हुआ एक लघु अविकसित जीवन है। उर्वर मिट्टी,उचित तापमान, पर्याप्त नमी और आवश्यक धूप जैसी उचित पर्यावरणीय परिस्थियों में जो पौधे के रूप में विकसित होने में सक्षम  होता है। ठीक उसी प्रकार से पल्लवित- पुष्पित होता है शब्द बीज। कितना वैज्ञानिक व विस्तृत अर्थ लिए हुवे है इस पुस्तक का यह शीर्षक “शब्दों के बीज”। शब्दों के बीज का शीर्षक  साहित्य से विज्ञान और विज्ञान से साहित्य का एक अंतर संबंध भी स्थापित करता है। इस शीर्षक की व्याख्या करने की कोशिश की तो इस निष्कर्ष पर पहुँची कि शब्द ही इंसान के विचारों का वह भ्रूण है जो अनुभवों की झिल्ली में लिपटा कल्पना की उर्वरा मिट्टी में डूबकर संवेदनाओं की नमी, चिंतन का तापमान पाकर एक रोज कविता अथवा कहानी में ढल कर एक जीवन ग्रहण कर लेता है । यह विचार बीज हमारे जीवन के कई पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं ,जैसे प्रेम,धर्म,सामाजिक राजनैतिक,ऐतिहासिक, आर्थिक, वैज्ञानिक अथवा परिवेश या जीवन-दर्शन आदि। जब हम अपनी भावनाओं को किसी से मौखिक रूप में कहने की बजाय उसे काग़ज़ पर उतारने लगते हैं तो वही शब्द-बीज आगे चलकर कविता बन कर एक कृति में ढल जाते हैं। संग्रह की अड़तीसवीं कविता शीर्षक कविता है इसमें अनिता जी कैसे शब्दों के बीज को रोपती हैं ज़रा देखें :- “काग़ज़ों की ज़मीं पर/ शब्दों के बीज बाये थे/ अरमानों की खाद व/ तुम्हारी याद में निकले आँसुओं से/ अश्क पिलाती रही उन्हें/ रोज़ नियम से निहारती रही कोंपल निकली,पौधा बना / अचानक इश्क़ का दरख्त बन गया ” अनिता जी पहली कविता में बोये हुए इन शब्द-बीजों से गुजरते हुए जब पुस्तक के  आख़िरी पन्ने तक पहुँची तो मेरे मन के पाँव संवेदनाओं की कोमल चिकनी मिट्टी से सने थे व हृदय भावों की लहलहाती हरी-भरी फसलों की अनूठी महक से सुवासित था । कवयित्री  की कविताएँ स्त्री-विमर्श के नये मूल्य स्थापित करने को प्रयत्न -रत हैं ‘एक औरत के कुछ प्रश्न’ वे प्रश्न हैं जो हर संवेदनशील मन के पाठक को सोचने को विवश करेंगे। समाज के कुछ कठोर नियमों व स्त्री के प्रति दकियानुसी सोच, मानसिक उद्वेग को बदलने का  साहस भीतर भरने को प्रेरित अवश्य करेंगीं ये कविताएँ । इन कविताओं को पढ़कर यदि समाज अपने आप को रति भर भी सुधारने की कोशिश करता है तो यह तमाम प्रश्न सार्थक उत्तर बन जाएँगे। ये कविताएँ  स्पष्ट करती हैं कि स्त्री-विमर्श का अर्थ पुरूषों का विरोध करना मात्र नही है | स्त्री-विमर्श परिवार तथा समाज को तोड़ने का  उपक्रम नहीं करता। इन कविताओं के स्त्री-विमर्श के द्वारा स्त्री को समाज में सम्मान व समानता दिलाना ही एकमात्र उद्देश्य दिखाई पड़ रहा है। कवयित्री समझतीं हैं कि स्त्री-विमर्श की विचारधारा को पूर्वाग्रह व के चश्में से देखना निरर्थक है। “मैं कमजोर थी/तुम्हारे हित में/सिवाय चुप रहने के/और कुछ नहीं किया मैंने/अब अंतर के/आंदोलित ज्वालामुखी ने/मेरी भी सहनशीलता की /धज्जियाँ उड़ा दी/मैंने चाहा, कि मैं तुमसे सिर्फ़ नफ़रत करूँ मैं चुप रही /” कवयित्री त्री के भीतर की कोमल, संवेदनशील, धैर्य भरी स्त्री उसे नफ़रत नहीं करने देती है। यह कविताएँ स्त्री मन -जीवन के कई अनछुए पहलुओं को भी उजागर करती हैं क्योंकि हर स्त्री का अपना मन है और उसका सोचने-समझने का अपना एक निजी नज़रिया भी। हर स्त्री की एक सीमित दुनिया और उसकी एक निश्चित धूरी होती है। उससे इतर देखने की उसको कभी स्वतंत्रता नहीं होती तो कभी फ़ुरसत नहीं होती।अनिता जी स्त्री की एक बंधी-बंधाई दुनिया के इसी दर्द को अपनी कविता में व्यक्त करते हुए कहती हैं “सृष्टि के विशाल होने से क्या फ़र्क पड़ता है/ मेरी तो अपनी बालकनी है/ पूरा विश्व घूमता है/ आँख की धूरी तक/ हलचल जीवन की/ कोलाहल जीवन में/ मेरा तो अपना हृदय है/ जो घूमता है चक्र की तरह /वही घूमना मेरी हलचल है/”   संग्रह की एक बहुत  मार्मिक व सार्थक कविता स्त्री-जीवन के अधूरेपन को लेकर है ‘एक साथ क्यों नहीं” यह कविता मानो  समस्त स्त्री जाती का प्रतिनिधित्व करता हुआ एक यक्ष प्रश्न है। उस सृष्टा से भी, इस सभ्य समाज से भी। आख़िर किसकी साज़िश है तमाम उम्र स्त्री के जीवन में यह अधूरापन स्थापित करके उसे खंड-खंड बनाये रखने की? इन तमाम प्रश्नों के साथ उपस्थित कितनी मार्मिक कविता है देखिये :- “औरत को सब कुछ/ एक साथ क्यों नहीं मिलता/ किश्तों में ही मिलता है/ जैसे, घर है तो छत नहीं/ छत है तो द्वार नहीं/ द्वार मिले तो साँकल नदारद/दिन को जीती है तो रातें ग़ायब/आसमां को जैसे ही देखे/तो ज़मीन ग़ायब।”   इस कविता में जैसे स्त्री के जीवन के संपूर्ण दुख,पीड़ा , संत्रास,बेचैनी बेकसी, आंतरिक जलन व गलन का खाका बहुत बारीकी से खींच दिया हो। ऐसा लगता है इस एक कविता के भीतर कई-कई कविताएँ हैं। हर स्त्री के मन का प्रतिनिधित्व कर रही है यह कविता।   अनिता जी स्त्री की बर्बादी की दोषी मात्र पुरुष को नहीं मानती। स्त्री द्वारा स्त्री के खिलाफ़ षड्यंत्र की सच बयानी भी इन कविताओं में है:- “सुना है नारी ही नारी की दुश्मन है/ हर स्त्री को अपने भीतर भी विचरण करना चाहिए/ बुद्ध की तरह सोचना चाहिए”… जब वह खुद को अपने अंदर से सुनेगी/ अपनी विषमताएँ,विडंबना छटपटाहट और कष्ट उसे चलचित्र से लगेंगे/ चलते वृहतचक्र में /नारी स्वयं अपनी आत्मा के अंतर द्वन्द के जाल में/ जकड़ी महसूस करेगी/ खुलने लगेंगे दरवाजे और टूटेगा स्वतः ही रूह का ताला/” यह सच्चाई की स्वीकारोक्ति का हौसला कहीं न कहीं केवल पुरुष को स्त्री की बर्बादी के अपराध से भी दोष मुक्त करने का साहस कहा जा सकता है।   वहीं उनकी एक अन्य कविता में तीन तलाक का दिन-रात अंतहीन आशंकित सा भय, मन की छाती पर ढोती महिलाओं को एक लम्बे सूर्यग्रहण से मुक्त होने की खुशी ‘तीन तलाक’ कविता में देखी जा सकती है। यह कविता बिना जाति-धर्म विभेद के स्त्री द्वारा स्त्री के पक्ष की एक बेहतरीन कविता कही जा सकती है:-   “अब दिखेंगी पगडंडियाँ / पर्दे के पीछे वाली आँखों को भी/ अमावस जैसे हर बुर्के के माथे पर उगेंगे छोटे नन्हे चाँद” इस कविता का रचाव उन्हें सही मानों में स्त्री विमर्श का पक्षधर बनता है।   संग्रह की कविता ‘माँ’  ‘उसने कहा’ माँ के अनुभव, ज्ञान, विवेक और उसके आंतरिक बोध, संवेदनाओं व साहस, प्रेम-परवाह का एक सार्थक व समर्थ मूल्यांकन कहा जा सकता है:- “माँ ही तो थी/ जो पढ़ी-लिखी नहीं पर पढ़ लेती थी/ मेरे माथे की शिकन भाव और मन की हर बात बिन बोले…।” वे कहती हैं माँ कभी अनपढ़ नहीं होती माँ के भीतर ज्ञान का विपुल भंडार और दृष्टि का असीमित बोध होता है। ” वह संगीतकार थी,/ गीतकार थी/डिजाइनर थी/ वह हमारी शेफ़ थी/ वह अन्तर्यामी भी थी/” फिर वह अनपढ़ कैसे हुई?” जीवन में जब कभी हम असमंजस में होते हैं तो माँ  हमें सही राह दिखा देती है। माँ की हर सीख जीवन की राहें आसान कर देती है फिर उसे अनपढ़ कहना कहाँ तक उचित है? पढ़ाई का गहन गूढ़ अर्थ केवल डिग्रियाँ भर नहीं बल्कि जीवन का वास्तविक व भोगा हुआ अनुभव है। इसी कविता का भाग दो “माँ नहीं रही” माँ के बाद के  रिक्त जीवन को, व पारिवारिक,सामाजिक परिवेश में बिखरी अस्त- व्यस्तता को व्यक्त करती अंतर को भेदती रचना है यथा कुछ पंक्तियाँ  इस कविता से :-माँ तो गई/अब मकान भी पिता को/ अचरज से देखता है/ मानो संग्रहालय होने से डरता है/ उसने खंडहरों में तब्दील होते/ मुहल्ले के कई मकानों को देखा है/ एक स्त्री से, एक माँ से घर घर होता है। उसके बाद जो घर बिखरने लगता है उसके दर्द को बहुत गहराई से व्यक्त किया इस कविता में। अनिता जी की कविताओं में स्त्री विमर्श के नाम पर केवल प्रतिरोध और कुंठा,अथवा आक्रोश जनित अवहेलना नहीं बल्कि स्त्री पुरुष के नैसर्गिक प्यार, परवाह व एक दूजे के प्रति अन्योनाश्रित कोमल, प्रेमिल भाव भी हैं। अनि ता जी की भीतरी स्त्री न तो खुद को स्त्री होने की मासूमियत व आंतरिक आद्रता को अस्वीकार करती है न खुद के भीतर बेवज़ह का पुरुषत्व उत्पन्न करना चाहती है। वह एक सहज,सरल, आत्मीय स्त्री बने रहने के सुख से वंचित नहीं होना चाहती हैं। इसी रेशमी अहसास की कविताएँ हैं ‘नहीं रोती हूँ मैं,’इक राग माँगती हूँ,’चाहत’ ‘बस तुम हो, ‘ख़्वाब, ‘हर सुबह’ तुम्हारी याद ‘याद, ‘बस तुम हो’ आदि-आदि।   इन कविताओं की एक और ख़ासियत यह है कि मन के तमाम सुकोमल भावों,समर्पण व सहृदयता की उपस्थिति के उपरांत भी ये कविताएँ स्त्री की सुरक्षा व सम्मान को लेकर सचेत हैं। कविता ‘नयी सोच’ में निर्भया कांड जैसी जघन्य घटनाओं  से क्षुब्ध वे कहती हैं :- निर्भया तुम्हारे लिए बहुत उदास रहे हम / रोज़ सुबह जब अख़बार की सुर्खियों में टपकता लहू औंधे मुँह गिरता है, मेरी चाय की प्याली में/ तो भाप नहीं सिसकियाँ निकलती है। ” वास्तव में ऐसे जघन्य कांड इंसान क्या पाषाणों तक के कलेज़े को चीर कर रख देते हैं। ऐसी घटनाओं पर प्रकृति तक का पोर-पोर विचलित हो जाता है । परन्तु लचर कानून व्यवस्था जहाँ अपराधियों की हिमायती प्रतीत होती है वहीं मौकापरस्त सियासतदार ऐसे अवसरों को भुनाने से नहीं चूकते। तब अनिता जी स्त्री को ख़ुद का तीसरा नेत्र खोलकर शिव बनने का आह्वान करती है।   संग्रह की कुछ कविताओं में पुरुषोत्व का दम्भ भरी उसकी लापरवाही को,उसके अभियान को बेबाक़ी से बिना किसी पूर्वग्रह के रेखांकित किया गया है। “तुम” कविता की कुछ पंक्तियाँ बानगी के तौर पर देखें:- “तुम्हारा छल /तुम्हारा दंभ तुम्हें ही कुचल रहा है/हाँ प्रिय/तुम अभिशप्त हो/ इतने समर्थ फिर भी/कितने असमर्थ हो।” ऐसी कुछ और कविताएँ हैं :-‘अकेली,’ इसी पल ‘, ‘अंतिम निर्णय,’ ‘सुनो’,  आदि। अनिता जी की कविताओं में  स्त्री अपने अधिकारों की माँग को लेकर भले कोई विद्रोह नहीं करती है पर एक मौन की ओट से फुसफुसाती हुई शिकायत लगभग कई कविताओं में पर्दे की ओट से हिलती-डुलती अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती नज़र आती है । तुमसे मिलकर /आज मुझे लगा/यहीं पर खत्म हुआ/ तुम्हारे शहर में मेरा सफ़र/ मुझे लौट आना पड़ा/कुछ टेड़े-मेढे पनीले सपने/कुछ आड़े-तिरछे रास्ते/कुछ असहज आँखें/कुछ सवाल हम दोनों न पलटे/और इस तरह ख़त्म हुआ/हमारे रिश्तों का/सिनेमा।” हर स्त्री हर  प्रकार से अपने रिश्ते को बचाने की कोशिश करती है लेकिन बात जब  स्वाभिमान से समझौते की आती है तब वह अपना रुख अलग अख़्तियार कर लेती है।यूँ तो ये कविताएँ विद्रोह के तल्ख तेवर से बचती है पर इन कविताओं में स्वभाविक स्त्रियोचित्त स्वाभिमान व उसकी आजादी की माँग अवश्य देखी जा सकती है। सैर” कविता  इस बात का  प्रमाण है कविता देखें रोज़ सुबह की सैर/पार्क और सड़क से/परिंदों के टूटे बिखरे पंख/इकठ्ठा कर लायी हूँ/उन्हें दोबारा एक परिंदे का रूप दे/नई आत्मा, सोच और हिम्मत डाल/उसे उड़ाऊँगी और कहूँगी/ कि वो हर रोज़ एक पंख/उन माहिलाओं की झोली में डालें/जो कैद हैं/ मर्दों के डर से लिपटी हुई / निकालना है उन्हे बाहर/ नई दुनिया की नई औरत बनने के लिए/ नई समतल सोच के साथ।/ आपकी कुछ कविताओं में स्त्री के  प्रति हो रहे दुराव के प्रतिरोध स्वरूप मर्म को छूती शिकायत है तथा लड़की के जीवन में लिंग के आधार पर बरती जा रही असमानता पर क्षोभ भी है। इन कविताओं में कई ठौर अस्तित्व, अस्मिता, स्वतंत्रता और मुक्ति का सवाल उभर कर सामने आया है।इसके अतिरिक्त इन कविताओं में प्रवासी  जीवन के अनुभवो का रंग भी महसूस किया  जा सकता है। इस संग्रह की कोई कविता ऐसी नहीं लगी जिसको पढ़कर यह लगे कि यह कविता जबरदस्ती रची गई हो। जीवन की डगर पर चलते हुए जो जो दृश्य कवयित्री की पकड़ में आते गए वह उनकी कविताओं में सहज ही स्थान पाते गए और कविता की इस यात्रा के सहयात्री बनते गए। अनिता जी की कविताओं में लोक-जीवन, प्रकृति, पर्यावरण,रिश्ते-नाते और सामाजिक,राजनीतिक व आर्थिक विचार-विमर्श समाहित हुआ है। वास्तव में यह कविताएँ अपने परिवेश का एक परिचय कोष है। एक सहज-सरल स्त्री के मन सी बहुत ही सरल कविताएँ हैं जिनमे न तो बेवजह की लाक्षणा- व्यंजना है न बेवजह की वक्रोक्ति है। जिस तरह खुद अनिता जी सहज-सरल, आत्मीयता भरी हैं यह कविताएँ भी उन्ही के अंतःकरण की छापे सी हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि “शब्द-बीज” में स्त्री- विमर्श के मूल स्वर के साथ -साथ जीवन के विविध रंग -रूप हैं जो मन को रंगते हैं,अहलादित करते हैं। अनि ता जी को इस संग्रह के प्रकाशन की बहुत-बहुत बधाई व आत्मीय शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। आशा पाण्डेय ओझा ‘आशा’ 31 वर्मा कॉलोनी उदयपुर 313002 राजस्थान ईमेल: asha09.pandey@gmail.com

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