ATMAN Paperback (आत्मन – हिंदी कविता संग्रह )

Category:

250.00

आत्माभिव्यंजना आपका अभिनंदन !!! आप सभी का हृदय से अभिनंदन कि आपने मेरे पहले काव्य-संकलन ‘पारिजात मन’ को इतना प्यार दिया। मैं वाक़ई अभिभूत हूँ। ये प्यार, ये सम्मान मेरी अपेक्षा से बहुत बहुत ज्यादा है। जीवन की इस अकल्पनीय उपलब्धि के लिए ईश्वर को बारंबार धन्यवाद। ‘पारिजात मन’ के पुष्पों की सुगंध आप सभी ने महसूस की और उसे आत्मसात करते हुए मेरी लेखनी को स्वीकार किया, इसके लिए मैं आपकी अत्यंत आभारी हूँ। ‘पारिजात मन’ संकलन की सफलता और आपकी इतनी सुंदर व उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं ने मुझे अपनी कुछ और कविताओं को एक बार फिर से जल्द संकलित करने के लिए प्रेरित कर दिया। परिणाम आपके सामने है। ऐसी चंद प्रतिक्रियाओं को मैंने इस संग्रह म भी संकोचपूर्वक शामिल किया है। आपकी इसी खुशी ने मुझे समझाया कि : जीवन बदल गया है एक संकलन छपते ही लोग अब कुछ-कुछ मुझे पहचानने लगे हैं कुछ को मेरे संकलन पर होता है बड़ा हर्ष कई क़ाबिलियत पर भी सवाल उठाने लगे हैं पर एक संकलन ने ही ज़िंदगी बदल दी अब हम भी खुद पर गर्व से इतराने लगे हैं अतः उसी क्रम म ये नया संकलन ‘आत्मन् !’ के नाम से आपके समक्ष प्रस्तुत है। ‘पारिजात मन’ के समान ही आत्मन् की कविताय भी मेरे मन के बेहद क़रीब हैं। हम सभी आत्मिक हैं, किसी न किसी रूप म एक दूसरे से जुड़े हैं; चाहे वो कोई भी रिश्ता हो, कैसा भी हो, प्यार का, नफ़रत का, स्नेह का, घृणा का, मित्रता का, अपनत्व का, किसी नाम का या फिर बिना किसी नाम का। आत्मन् ! ये सम्बोधन मुझे अति प्रिय है। आत्मन् यानि स्वमन ! जैसे हम हैं, वैसे ही दूसरे को देख । इस शब्द से ऐसा लगता है जैसे कोई हृदय के समीप हो, इतना समीप कि हमारा ही प्रतिबिंब हमको संबोधित करता हुआ सा लगे। तभी मेरे मन ने कहा कि :दुनिया म कुछ रह जाएगा तो वो हैं सिर्फ़ याद उन यादों के लिए कुछ अच्छा भी कर जाया करो इस संकलन म आत्मन् ! शीर्षक से बहुत सी कविताय हैं। आत्मा का संबंध तो किसी से भी हो सकता है, चाहे वो माता-पिता हों, भाई-बहन हों, मित्र हों या कोई भी अनजाने से अपने हों। कभी किसी से हमारा कोई रिश्ता नहीं होता, परंतु फिर भी वह हमारे मन के बेहद करीब होता है या कभी गहरे रिश्ते होने के बावजूद भी उनम कोई आत्मीयता नहीं होती। शायद यही वजह बन जाती है किसी से प्रेम करने या न करने की। मेरी इन कविताओं म कहीं अन्तर्मन की पीड़ा है तो कहीं मन म झलकता प्रेम। कहीं पर मैं साक्षी बनी हूँ और कहीं दृष्टा। जब भागती हुई ज़िंदगी से ऐसा लगा कि पीछे छूट रही हूँ तो मैंने अपनी गति बढ़ाई : रफ़्तार ज़िंदगी की जब कम तो न हुई कुछ लड़खड़ाते क़दमों को ही तेज़ी से चलना सिखा दिया यह ज़रूरी नहीं कि सारी मेरे ही मन की अभिव्यक्तियाँ हों, कभी किसी और का दुख और विषाद भी हम पीड़ा दे जाता है और कभी किसी और की खुशी भी हम प्रसन्नता दे जाती है। कई बार हम कितना कुछ कहना चाहते हैं पर चाहकर भी कह नहीं पाते। कई बार वो मजबूरी होती है और कई बार वो हमारी ताक़त बन जाती है। ऐसे ही कुछ भावों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की चेष्टा की है। जो बात जैसे मन को छुई, उसी रूप म लिख दिया। कोई दिखावा या लाग-लपेट नहीं क्योंकि सादा लिखना ही मुझे अच्छा लगता है और शायद मेरी लेखनी की इसी सादगी ने आपको कहीं छुआ है। यह कहना सही होगा कि आप ही ने मुझे यह सिखाया है : निरंतर प्रवाह म रहना ही जीवंत रहने का संदेश है जीवन के इस संदेश को सदा सार्थक बनाए रखिएगा मेरे लिए सभी आत्मन हैं, वो जो मेरे अपने हैं और वो भी जो अपने नहीं हैं पर मन-जीवन के बेहद करीब हैं। हर व्यक्ति का कहीं न कहीं प्रभाव है मुझ पर; चाहे वो किसी भी रूप म हो। मैं ईश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे इतना सुंदर जीवन दिया, इतने अच्छे संबंध दिये और इतने अच्छे लोग दिये जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा और आज भी सीख रही हूँ। सीखते रहने पर ही हम आगे बढ़ते हुए नए मुकाम हासिल करते हैं। अपने पिछले संकलन ‘पारिजात मन’ म मैंने माँ के लिए ज़्यादा कहा था, ये उनके प्रति श्रद्धा का भाव था, जो स्वाभाविक था। इस नए संकलन आत्मन् ! म मैं उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिन्होंने मेरे जीवन म कहीं भी अपना कोई प्रभाव छोड़ा है। मैंने महसूस किया कि जब मेरे लिए सभी ने इतना कुछ किया तो मुझे भी लगा : अंधेरे तो सभी के घरों म हमेशा होते हैं मौजूद किसी के घर म उम्मीद की थोड़ी सी रोशनी की जाए मेरे पिता तो मात्र 5 वर्ष तक मेरे साथ रहे और फिर अनंत म खो गए पर आज भी उनकी स्मृतियाँ मुझसे जुड़ी हुई हैं। मुझे ठीक से उनकी सूरत तो याद नहीं पर जानकारी हुई कि साहित्य म उनकी रुचि थी। उनसे यही गुण संभवतः मुझे विरासत म मिला है। दादाजी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और मेरा व भैया का बचपन उन्हीं के सान्निध्य से जुड़ा है। हम कितने ही श्लोक, हनुमान चालीसा, रामायण की चौपाइयाँ, आरतियाँ आदि उन्होंने ही सिखाईं और नित्य रात को हम कहानियाँ सुनाते थे। उनका स्नेहिल आशीर्वाद सदा हमारे साथ है। मेरे भैया मुझसे 7 साल बड़े हैं इसीलिए उनका व्यवहार सदा पितातुल्य रहा। हमेशा ज़रूरतों का ध्यान रखा और मेरा कन्यादान भी उन्होंने ही किया। मेरी भाभी व बच्चे ईश्वरी व ईशान मेरे अति प्रिय हैं। हर तरह से भरा-पूरा यही सब देखकर लगा कि : फ़लसफ़े बड़े आसां से हैं मुस्कुराने के लिए हर घड़ी बस आँसू बहाने की कोशिश न कर सच कहूँ तो मेरा ससुराल मुझे मेरा मायका ज्यादा लगता है। बीजी-पिताजी, बड़े भैया व भाभी, दीदी-जीजाजी, चाणक्य-सुरभि, सोनाक्षी-सलिल, कर्तव्य-आयुषी व कारुण्य सभी मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। सब एक-दूसरे से पूरी तरह से सच्चे मोतियों के हार की तरह जुड़े हुए हैं। अपने जीवन साथी प्रदीप जी की तारीफ़ म तो क्या कहूँ? आत्मन ! संबोधन से जुड़ी अधिकांश कविताय उन्हीं को समर्पित हैं। इनके मौन म भी प्रेम है और हम दोनों एक-दूसरे के अविभाज्य पूरक हैं। मेरा अस्तित्व इनके साथ ही सम्पूर्ण हुआ है। मेरे बच्चे परंजय व पर्णिका मेरी जान हैं। इन दोनों के कारण ही मातृत्व-सुख का अमूल्य सौभाग्य मुझे मिला। ऐसे ही कई भूले-बिसरे आत्मीयों के प्रति मैं आभार व्यक्त करती हूँ। मेरी सारी सहेलियाँ, मेरी दत्तक पुत्रियाँ मेरी संपदा हैं। मेरे पास रिश्तों का, शुभचिंतकों का इतना अनमोल खज़ाना है कि मुझे गर्व होता है इन पर और खुद पर भी, तो लगा कि ज़माने को भी कुछ इस अंदाज़ म अपनी ख़बर की जाए : बेखबर है ज़माना हमारे वजूद की क़ीमत से अब इसको भी थोड़ी सी अपनी ख़बर दी जाए ‘आत्मन् !’ म मैंने अपनी कविताओं की काफ़ी सारी शेष जमापूंजी संकलित की है। इसके बाद नए सिरे से कविताओं की शुरुआत होगी। अब ऐसा लग रहा है कि ज़िंदगी जैसे भाग रही है और मैं उसके साथ भाग रही हूँ; अपने अधूरे सपनों की पोटली लिए। अपने ऐसे ही कई सपनों को, कई कल्पनाओं को मैंने यहां संजोया है। बारिश और पारिजात के समान मुझे जुगनू भी विशेष प्रिय है, सो इनका उल्लेख मेरी कई कविताओं म मिलेगा। इस ज़िंदगी म मेरी दुनिया बड़ी सीमित रही है। केवल आसपास का परिवेश, धरती, आसमां, बादल, बारिश, पेड़-पौधे, हवा, फूल ऐसी ही बहुत सी चीज़ों में अपने छोटे से अस्तित्व को तलाशा है, इसीलिए इन प्रतीकों पर कुछ ज़्यादा कविताय हैं। हमने जो दिया हो, वो कहीं न कहीं हम वापस ज़रूर मिलता है और अब शायद मुझे वो आपसे वापस मिल रहा है। तभी मैंने यह महसूस किया कि : मरने से पहले जीने की कुछ वजह ढूँढ ली जाए इस शहर म अपनी भी कुछ जगह ढूँढ ली जाए मुझे पूरा विश्वास है कि आप सभी का स्नेहिल आशीर्वाद आगे भी मिलता रहेगा और ‘पारिजात मन’ की तरह मेरे इस नए संकलन ‘आत्मन् !’ को भी आपका भरपूर स्नेह, प्रेम और अपनत्व मिलेगा। अंत म मैं गुरुवत श्री अग्रवाल जी का भी धन्यवाद करती हूँ जिनके अनवरत सहयोग व निरंतर प्रेरणा से ये कार्य संपन्न हो पाया है। साथ ही धन्यवाद करती हूँ अनुराधा प्रकाशन के श्री मनमोहन शर्मा ‘शरण’ जी और प्रिय प्रियंका का जिन्होंने मेरे इस सपने को इतने सुंदर रूप में साकार किया। इस पर आपकी खट्टी-मीठी राय का मुझे इंतज़ार रहेगा। कुछ कहिएगा ज़रूर !! अर्चना भारद्वाज

We have put a lot of focus on making sure the items get delivered to our customers as quickly as possible. We offer free Shipping all over India.

Delivery Time: 10-15 business days

Standard delivery items typically arrive within 2-5 days. Any specific item may take upto 10-15 days to arrive. Please allow atleast 15 days before enquiring about lost or missing items.

In case the delivery is required within a specific time period, it is necessary to mention about it at the time of placing the order.
Please allow additional time for your orders to arrive over the bank holiday weekends. We suggest allowing an additional 2-3 days for your packages to arrive to allow for delays within the mail.

It is up to you to make sure that your address details are entered correctly and accurately. We cannot be responsible for delivery problems caused by inadequate address details.

If you need help with your order, please write to us at anuradhaprakashan.official@gmail.com